रूचि - जिंदगी का सफरनामा : Episode 1 - गजरा
NOVEL: रूचि - जिंदगी का सफरनामा
PRESENTED BY: The Creablez
AUTHOR: दर्शिनी शाह
CHAPTER 1: अनकही
EPISODE 1: गजरा
फिर वही समन्वय, हर साल की तरह… गर्मियों का आरंभ और बे-मौसम बादलों का पकड़-दाव… । कभी-कभी ही सही, पर धूप के पहर पर यूं अचानक रेन का ये बेबाक पूर्णाधिकार और दरमियान जन्मती सांझ मुझे बहोत पसंद है।
इसी वक्त तो इस तपती धूप के पास होता है - इसे बेरंग से सांझ के रंग-बिरंगी पंख देकर सुर्ख गुलाबी आसमान बनाने वाला, बिनशर्त, बिन-बटवारे का… कोई अपना - मतलब… की ये बदले मौसम की चढ़ती रात। जो पूरी तरह चढने से पहेले सुनहरे-लाल पारदर्शी बादल, उनके बीच से लालिमा पसारते सूर्यास्त और बादलों के परदो से आंख-मिचौली खेलते चंद्रोदय को इसके आलम में भर जाती है।
जिसकी दस्तक, गुदगुदाती ठंडी हवाएँ घोड़े के रथ पर सवार,अहमदाबाद शहर को सुना रही, बदले मौसम के हाल।
अहमदाबाद शहर -
यहाँ की पक्की सड़कें, लंबी गाड़ियाँ, और मसरूफ लोगों के बीच पड़ता है मेरे पापा का घर। इस शहर की चकाचैंध और रोज़मर्रा की भागदौड़ में अपना कहने को उनके पास है, 2 B.H.K. फ्लैट, और हमारा छोटा सा परिवार।
मेरे पापा - “राजीव पाठक”
परिवर्तन के डर से, रूढ़िवादी विचारों के कायल होने का आडंबर भरते-भरते विचारशून्य होते जा रहे लोगों के असमर्थक, दरअसल अपनी विचारशैली को विस्तृत, बेहतर और उच्च बनाने के कोतूहल की उंगली वह एक गुरु के समान पकड़े हुए है। जिसमे कोई दोराय नहीं ये बात सिद्ध करता है हमारे घर का बुक शेल्फ।
उनकी तराशी हुई उम्दा सोच का सटीक उदाहरण है हमारे घर की चौखट। जहां दरवाजे पर लगी नेमप्लेट पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है “जानवी सदन” साथ ही पौराणिक प्रथा के मजबूती से हाथ थामे है चौखट पर बने स्वस्तिक ने। जो नवयुग और रूढ़िवाद के संतुलन के साथ साथ परिवर्तन-संगत विचारधारा की भी पुष्टि करते है।
“जानवी सदन” -
यानि मेरा घर। जिसे फ्लैट कहना उचित न होगा, क्योंकि जिसकी सृष्टि ऐसी की हो जैसे खूब जतन से सिंच कर, दीवारों से घर बनाया हो, उसे फ्लैट कहना उसकी निंदा नहीं, खुद की समझ-लघुता का ही प्रदर्शन होगा। है ना? इसकी सज्जा और सामान की बारीक जतन-शैली, कदम-कदम पर घर की जीवंतता का प्रमाण देती है, पर हर किसी की समझ के ये मोहताज़ नहीं।
घर के दो छज्जे (बालकनी) और चार हवादार बड़े दरीचे(खिड़कियाँ) इसे सतत ताजा हवा और रोशनी से भरा रखते है। क्षितिज तक फैला कोहरा और उससे बदले मौसम की खुशबू छज्जे से लगे खुले दरीचे से छनकर मेरै घर के हॉल तक आ रही थी।
वैसे लोग कहते है… यूँ अचानक से बदले मौसम का उन्माद, कीसी की भी दबी हुई उत्कंठा जगा देता है। जिसका प्रमाण एकाएक आज रसोई से…
“
दिल तो है दिल, दिल का एतबार क्या कीजे…
आ गया जो किसी पे प्यार क्या कीजे…
…
”
आ रही गुनगुनाने की आवाज़ और साथ ही “थठ-थठ-थठ-थठ” रोज़मर्रा की तरह ओखली में कुटी जा रही अदरक की। भला दीवार पर टंगी घड़ी पीछे कैसे रहती? “टंअअन्गग टंअअन्गग” - उसके बजते ही रसोई से काजल सनी दो आँखें ऊपर की तरफ उठी और अपलक घड़ी की तरफ मुड़ गई और कुछ दो सेकंड बाद वापस अपने काम में जुड़ गई। इर्ष्याशून्य ममत्वमयी छटा, स्नेह से सराबोर मुखाकृति, बिन श्रृंगार सुंदर, सौम्यता भरा रव, हृदय से उदार, हर जीव से मिलनसार, जो है मेरी माँ - जानवी पाठक। तानसेन बनी घड़ी 5 बजकर 15 मिनट का ऐलान कर रही थी। और रोज़मर्रा की तरह यह आम सिलसिला जारी था। अरे मे तो भूल ही गई की आप सोच रहे होंगे ये सब आपको बताने वाली मै कौन हु? मैं आपकी रुचि। पर मेरे लड़कपन को समझने के लिए आपको जानना होगा मेरा बचपन। तो… आप खुद ही देख लीजिये। “टिंग टोंग” - सहसा दरवाजे की घंटी बजी। (ध्वनि कानों में पड़ते ही रसोई में काम कर रही जानवी), आधी कुटी अदरक छोड़, गैस की आँच धीमी कर, अपनी लाल साड़ी का पल्लू कमर से निकाल सीधा करते हुए जानवी हॉल की तरफ चल पडी। घंटी दुबारा बजी की दहलीज तक पहुँची जानवी ने दरवाजा खोला। सामने खडे थे राजीव - विचारशील मनोवृत्ति के प्रखर प्रतिबिम्ब से निर्मित चेहरा, उसके आलिंगन में शोभित धीर की आब, होठों के ऊपर रूआबदार मूंछ और ज़िंदादिली से परिपूर्ण मुखारविंद राजीव - एक प्रभावशाली व्यक्तित्व-मालिकी का प्रत्यक्ष उदाहरण”। दरवाजा खुला, शू रैक पर जूते छोड़ दहलीज़ के अंदर आकर राजीवजी ने जुराबे उतारी। नवयुग की कार्यप्रणाली के प्रभावी दफ़्तर का हिस्सा होने का नतीजा था, आए दिन राजीव का 7-8 बजे घर पहुँचना, और अबके हाथ लिए प्रोजेक्ट के दोरान शाम का मुँह ताके उन्हें हफ़्ते बीत गए थे। आज इस समय उन्हें घर देख कौतूहल से अभीभूत जानवी पूछ पड़ी - “आज जल्दी आ गए आप? सब ठीक है ना?”
इस उपहास से पहेले तो जानवी थोडी चिढ़ी और फिर राजीव के कंधे से बैग और हाथ से टिफिन लिया। “अच्छा यह बात है, जाओ… नहीं पूछती फिर”- कहकर बैग साइड में रख, टिफिन हाथ में लिए वह रसोई की तरफ बढ़ गई।
इतने मे दरीचे से आती हवाएं राजीव को छूकर गुजरी, वह सहसा ही मुस्कुरा उठे। सोफे के हत्थे के पास रखे मेज पर उन्होने चाबी और फोन रखा, एक लंबी गहरी सांस ली, अपनी टाई ढीली की और शर्ट की बाजू ऊपर की तरफ मोड़ दी।
दरमियान पानी लेकर आई जानवी ने ग्लास राजीव की तरफ बढ़ा दिया। राजीव जी ने ग्लास हाथ में लिया और जानवी को अपने बाजू में बैठने का इशारा करते हुए बोले - “इधर बैठिए, आपकी जिज्ञासा अभी हल किए देता हूँ” और ग्लास मेज़ पर रख जानवी की तरफ मुड़कर अपनी नजरें उस पर टिका ली।
“इतने महीनों से चल रहे क्रिटिकल प्रोजेक्ट का प्रस्ताव आज आखिरकार अप्रूव हो गया, जिसके चलते आज बॉस ने मेरी मेहनत को देख मुझे सराहना के साथ-साथ उस प्रोजेक्ट को individually आगे लीड करने और पूरे यूनिट को मैनेज करने का इनिशिएटिव दिया है। इस प्रोजेक्ट के हार्डवर्क के चलते तुम्हारा मुझे काफी सपोर्ट रहा है, बेशक इसकी जीत पर भी तुम्हारा अधिकार मुझसे पहले बनता है, तो बस इसे तुमसे साझा कर सही मायनों में बड़ा बनाने… में घर चला आया। रही बात काम की जिम्मेदारी की तो... ऑफिस मे सेलिब्रेशन का मौका भर चाहिये बस, जो उन्हे आज मिल गया, आज काम कहाँ ही होना वाला था? तो बस वो सीधे कैन्टीन और मे सीधा घर।” - राजीवजी एक ही सांस में बोल पड़े, और पानी का ग्लास हाथ मे उठा लिया कि हॉल के पीछे बने रसोईघर से चाय उफनने की आवाज़ गुंजी, आवाज़ सुनते ही जानवी के कान खड़े और गर्दन पीछे की तरफ मुड़ गई।
“हे राम” - जानवी बोल पड़ी और तेजी से उठकर चल पड़ी।
इस तरफ राजीव के हाथ में पानी का ग्लास तो था पर उसकी नज़रे घर में इधर उधर दौड़ रही थी।
“रुचि कहाँ है, घर नहीं आई अभी तक?” - शिकन की रेखा माथे पर टिकाए, राजीव जी बोले।
टिंग टोंग - जानवी से पहले दरवाजे की घंटी ने जवाब दिया।
“लगता है आ गई।” - दरवाज़े की ओर इशारा कर कहते हुए जानवी आगे बढ़ने लगी तभी “आप चाय देखिए जानवी में देखता हूँ।” - ग्लास वापस मेज पर रख राजीव उठ खड़े हुए।
“आ जाओ।” - दरवाजा खोल सामने रुचि को देखकर राजीव जी बोले।
“पापा?” - कहते हुए रुचि उनसे लिपट गई। जेसे घंटों बाद पिता को देख खुशी से अभिभूत बच्चा बाप से लिपटता है। वह उनके घुटनों तक भी मुश्किल से आती थी। और दुसरे ही पल दौड़कर हॉल में रखी छोटी सी तख्त पर आ बैठी। उसकी इस चंचलता ने राजीव के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान छोड़ दी। दरवाजा बंद कर वह भी रुचि के पीछे-पीछे हॉल में आ बैठे। और मेज पर रखा ग्लास उठाकर सुकून से पानी पीने लगे। रुचि उठकर सोफे पर राजीव के बाजू में आ बैठी और प्यारी आवाज़ में बोली.. - “पापा आज छुट्टी?” यह मासूम सूरत देखकर राजीव जी प्यार से उसका गाल पुचकारते हुए बोले - “हाँ बच्चा, आज आधे दिन कि छुट्टी थी, अब आप ये बताओ आपने आज क्लास में क्या पढ़ा?”
“आज? आज तो.. सरप्राइज टेस्ट लिया, और.. और अवंतिका मिस ने रीमार्क दिये” - कहते-कहते रुचि अपनी बैग को खंगालने लगी। रसोई में खड़ी जानवी जो यह सब सुन रही थी उसने घड़ी ताकी और भौहें सिकोड़कर बोली - “रुचि बेटा, आज इतनी देर कैसे हो गई ?”
राजीव के घर का डिज़ाइन नवयुग के प्रभाव में इस तरह बना था की खुली रसोई होने से, वहां से बाहर के हर शख्स की हलचल आसानी से दिखाई पड़ती थी।
रसोई में खड़ी जानवी के पास जाकर - “मम्मा, आज अवंतिका मिस ने “My best Friend” पर essay लिखने को दिया था, Then she told us that books are our beeeesst friends. पर मम्मा, How can a book be a friend? वो तो बोल भी नहीं सकती ना?” - मुँह छोटा और अपना सिर नीचे कर हिलाते हुए रुचि ने कहा, जैसे प्रश्नार्थ और पूर्णविराम दोनो खुद ही ने तय कर लिए हो। और दूसरे ही पल फर्राटे से दौड़कर राजीव के पास आकर - “पापा आपको पता है, फिर आज घर आते आते क्या हुआ?” - कहते हुए रुचि की आंखों में चमक भर आई।
“अब बाकी बातें बाद में कर लेना, पहले गर्म नाश्ता कर लो… चलो।” - रुचि की खत्म न होने वाली बातों पर रोक लगाते हुए जानवी ने कहा।
पर राजीव.. वो तो माहौल का मुआयना करते हुए जानवी का ध्यान ना पाकर फुसफुसाने लगे - “क्या हुआ घर आते वक्त?”
रुचि दबी आवाज में - “आज ना घर आते-आते वो मंदिर के पीछे वाली सड़क है ना ? जहाँ मोटूराम की सोडा मिलती है वहाँ मैं और...” - अपनी बात पूरी करती हुई रुचि के शब्द जानवी को खुद के सामने खड़ा देख गले में ही अटक गए।
जानवी - “ये क्या हो रहा हे, दोनो एक जेसे हो, पहली बार में सुनते ही नहीं, चलो उठो और हाथ धोकर आओ, मै गर्म पराठे लाती हूं।” - हाथ में बेलन लिए खड़ी जानवी ने बेसिन की तरफ इशारा करते हुए कहा। दाट पडते ही रुचि और राजीव खड़े पांव बेसिन की तरफ भागे।
दोनों का यह हाल देख अपनी हसी को काबू कर जानवी रसोई की तरफ बढ़ने को हुई। लेकीन पीछे से राजीव ने उसका हाथ पकड़ लिया और दुसरे हाथ से जेब से कुछ निकालकर बोले। - “आज कुछ अधूरा लग रहा है, जानवी जी।”
पीठ कर खडी जानवी अनजान बनते हुए।- “अधूरा ? वो क्या ?”
राजीव जानवी का हाथ छोड अपनी आँखों को नीचे रखे हुए - “आपको पता है ना आपके बालों में गजरा सजा देखने का मैं आदी हो चुका हूँ? गजरा नहीं लगाया आज आपने जानवी?”
एक मिनट रुककर... राजीव हाथ में पकडी हरे पत्तो से लिपटी छोटी गठरी के ऊपर से सफेद धागा निकालने लगे फिर हरे रंग के दो बड़े पत्तो को एक एक कर चारों तरफ से खोला, जिसमें से निकला - श्वेत, सुगंधित, छोटे छोटे ताजा मोगरे के फूलों से बना “गजरा”। जैसे ही वह जानवी के बालों में लगाने गये कि शर्म से लाल हुई जानवी बोल पडी। - “क्या कर रहे हैं आप, रुचि देख रही है। दीजिये मे बाद मे लगा दूंगी।”
राजीव - “क्या कर रहा हूं? बस गजरा लगा रहा हूं, आप तो जानती है जानवी, आपके लिए रोज़ गजरा लाना मुझे कितना पसंद है, हालांकि शादी के बाद हमारा रिश्ता एक दुसरे के प्रति कभी किसी औपचारिकता का मोहताज नही रहा, पर इतने साल बाद भी हमारे रिश्ते की ये मिठास और आपके चेहरे की ये चमक बरकरार रखने में इस गजरे की छोटी सी भूमिका कितनी अहम है, उसे शब्दों में कहे जाने की ज़रूरत नहीं है, ये आप खुद समजती हैं। और ...रही बात रुचि की तो…
जानवी आपको पता है? हमारे समाज मे सेंकड़ों परिवार ऐसे होंगे जो मर्यादा के नाम पर अपने बच्चों के सामने एक दूसरे के प्रति स्नेह और सम्मान जताने में हिचकिचाते है, लेकिन बच्चों के सामने उन्हें झगड़ा या अपमानजनक शब्दप्रयोग से पहले कोई मर्यादा याद नहीं आती, दुविधा नहीं महसूस होती कि वो किस वक्त और कहां खड़े हैं। यह अपनी सुविधानुसार मर्यादा कोई मर्यादा नहीं बल्कि भ्रम है। जिसके परिणाम में परिवार में क्रोध और जलन के भाव तो नजर आते हैं पर एक-दूसरे के प्रति प्रेम, करुणता के भाव कभी साफ नहीं दिखते और जो दिखता ही नहीं उसका भला ज्ञान कैसे होगा ? क्या ये बाते ये प्रमाण नही? की कहीं न कहीं हम ही अपने बच्चों को सिखा रहे हैं, ये लड़ना, अपशब्द, अपमान और बात बात पर किसी का भी दिल दुखा देना बहोत आम मतलब नॉर्मल बाते है। लेकीन सब के बीच किसी से आदर और प्रेम से बात करना झिझक का विषय है? यह सौच की किसी और को सम्मान देना यानी खुदको छोटा महसूस करना बडी ही विकलता का विषय है।
मैं मर्यादा समझता हूँ पर मैं बडा ही मायूस होता हूँ जब ये प्रमाण पाता हू की सही मायनों में स्नेह और आदर के बीज बोने से हम ही चूक जाते हैं। और बड़े होकर जब वह गुस्से और अपमान के खुद में पले, पोषित हुए भाव के चलते बात बात पर मर्यादा भूल जाते हैं तब हम उन्हें और खुद के नसीब को कोसते है। अपनी परवरिश में रही कमी को ढूँढने लगते है। मुझे ये कभी समझ नही आया कि इतनी साधारण बात हमारे समझदार समाज की समझ से बाहर केसे? मे ये तय नही कर पाता यह हसी का विषय हे या तरस का…
एक लंबी गहरी साँस लेकर -
…पर मैं अपनी रुचि को प्रेम, स्नेह, आदर्श, मर्यादा, सम्मान, करुणा ये सभी भाव सिखाना चाहता हूँ। और जब आज वह मुझे अपने आप से और आपके साथ स्नेह और आदर पूर्ण व्यवहार करता पाएँगी, महसूस करेगी तब ही तो यह भाव समझेगी। तभी तो वह अपने हर शब्द और फेसलो के प्रति सावधान और अडिग रहेंगी। और आगे अपने जीवनसाथी के साथ भी प्रेम, सम्मान और परिपक्वता से भरी जिंदगी साझा कर पाएगी।”
राजीव जी कहते रहे और जानवी बस सुनती रही, दो पल पहले ठिठोली कर रहे राजीव जी इस पल भावनाओं के मेले में एसे डूबे की उसकी साफ छवि उनके चेहरे के चढ़ान-ढलान में नजर आने लगी।
जानवी भली-भाँति सब समज और महसूस कर पा रही थी और यही थी उनके रिश्ते की खूबसूरत बात। राजीव की जंजोड देने वाली बाते माहौल में दूर तक ख़ामोशी पसारने के लिए काफी थी। कमरे के आखरी छोर तक बस सन्नाटा फेल गया और उस पर घाट बनी (उभरी) राजीव की यह गहन बाते।
“टंअअन्गग टंअअन्गग” सन्नाटे को चीरते हुए घड़ी ने फिर अपनी हाजरी भरी.. जानवी की तंद्रा टूटी, बड़ी सहजता से उसने अपना हौसले से भरा हाथ राजीव के कंधे पर रख दिया। इस पल मे शब्द नही थे पर संवाद शब्दो से भी गहरे, जेसे निर्जीव को भी रुआँसा कर दे। राजीव अपनी दूरदर्शिता से चेतना में लौटे, एक गहरी साँस भरी और अपने हाथों से गजरा जानवी के बालों में सजा दीया।
इर्ष्याशून्य ममत्वमयी छटा, स्नेह से सराबोर मुखाकृति, बिन श्रृंगार सुंदर, सौम्यता भरा रव, हृदय से उदार, हर जीव से मिलनसार - जानवी
लाल कॉटन की साड़ी, हाथ में चूड़ी, आँखों में सना काजल, माथे पर लगी छोटी बिंदी और उस पर, और उस पर गूथ कर बंधे बालो में सजाया ये गजरा, जानवी की सादगी में भी सुंदरता में चार चांद लगा रहा था।
इन बातो के सागर मे डूबी रुचि बेसिन के पास खड़ी बस एक-तक ये सब देखे जा रही थी। भला इतनी छोटी जान को यह बातो का मर्म समझ आए भी तो केसे? पर उसकी मछली सी आँखों को मिली झरने की बूँदें, उसमें समाए राजीव के सभी गुणों को बिन शब्द ही बयां किए जा रही थी।
भिगी आँखें, लाल हुई नाक और मोटे मुलायम गाल, इस वक्त छोटी रुचि के चेहरे को मासूमियत ने यूँ ओढ़ा था, कि उसकी भोली सूरत देखकर कुछ पल सुध खोने से कोई खुदको रोक नहीं पाता।
राजीव जी रुचि और जानवी का चेहरा भाप माहौल को थोड़ा हल्का करते हुए - “अब नाश्ता ठंडा नहीं हो रहा जानवी? ये पराठे जलने की बदबू आपको भी आ रही है या…?” सुनते ही माहौल मे खोयी जानवी रसोई की तरफ भागी, और राजीव मुस्कुराते हुए बेसिन की और चल पड़े।
शाम के इस पहर घर में राजीव, जानवी और बस 8 साल की छोटी रुचि थे। निचे तेज़ ठंडी हवाएँ, हल्ला-गुल्ला कर रहे बच्चे, सर्दियों के बाद घर से निकले हसते-खिलखिलाते लोग और सुख दुःख की बातें कर रहे बूढ़ों की चहल-पहल का नज़ारा था।
हाथ मुँह धोकर रुचि सोफे की तरफ चल पडी, टिंग-टोंग एक बार फिर... दरवाजे की घंटी बजी।

Written By- Darshini Shah
Presented By- The Creablez
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